Monday 12 July 2010

इतिहास के पन्नों में उत्तराखंड की तस्वीर

उत्तराखंड में राजवंशों की शासन श्रृंखला के बारे में अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर जो लिखा जाता रहा है एवं उसकी पांडुलीपियों और शिलालेखों से यहां के बारे में जो जानकारियां मिलती हैं वह उत्तराखंड के प्राचीन इतिहास और सभ्यता को समृद्धशाली बनाती हैं। उत्तराखंड की नई पीढ़ी इस समय अपने उच्चतम विकास की प्रत्याशा में यहां से पलायन कर रही है या फिर उसमें अपने पूर्वजों को पढ़ने और समझने में कम ही दिलचस्पी है। इतिहास वेत्ताओं का कहना है कि उत्तराखंड का इतिहास राजवंशो से इतना समृद्धिशाली है कि उनकी पृष्ठभूमि इस तथ्य की पुष्टि करती है कि उत्तराखंड राज्य की आवश्यकता तो आज़ादी के समय से ही थी यदि इस पर दूरगामी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से कार्य किया जाता तो देश का यह महत्वपूर्ण हिम क्षेत्र अब तक पर्यटन उद्योग का एक प्रमुख मॉडल और प्रत्येक दृष्टि से बहुत समृद्धशाली हो गया होता।

ईसा से 2500 वर्ष पहले पश्चिमोत्तर भू-भाग में कत्यूरी वंश के शासकों का आधिपत्य था। प्रारंभ में इनकी राजधानी जोशीमठ थी जो कि आज चमोली जनपद में है, बाद में कार्तिकेयपुर हो गई। कत्यूरी राजाओं का राज्य सिक्किम से लेकर काबुल तक था। उनके राज्य में दिल्ली व रोहेलखंड भी थे। पुरातत्ववेत्ता कनिंघम ने भी अपनी किताब में इस तथ्य का उल्लेख किया है। ताम्रपत्रों और शिलालेखों के अध्ययन से कत्यूरी राजा सूर्यवंशी ठहरते हैं इसीलिए कुछ शोधकर्त्ताओं के विचार से अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं का विस्तार कदाचित यहां तक हो। यह निर्विवाद है कि कत्यूरी शासक प्रभावशाली थे। उन्होंने खस राजाओं पर विजय पाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
आज दो राजस्व मण्डलों (कुमायूं, गढ़वाल) के 13 जिलों सिमट कर रह गया है किंतु यह कत्यूरी तथा चन्द राजवंशों, गोरखाराज और अंग्रेजों के शासनाधीन रहा। ईपू 2500 वर्ष से 770 तक कत्यूरी वंश, सन् 770-1790 तक चन्द वंश, सन् 1790 से 1815 तक गोरखा शासकों और सन् 1815 से भारत को आजादी मिलने तक अंग्रेज शासकों के अधीन रहा। कुमायूं और गढ़वाल मण्डल, शासन-प्रशासन, राजस्व वसूलने की सुविधा की दृष्टि से अंग्रेज शासकों ने बनाये थे।

कत्यूरी शासकों की अवनति का कारण शक व हूण थे। वे यहां के शासक तो रहे लेकिन अधिक समय नहीं। कत्यूरी राजवंश के छिन्न-भिन्न भू-भाग को समेट कर बाद में चन्द्रवंश के चंदेले राजपूत लगभग 1000 वर्ष यहां के शासक रहे। बीच में खस राजा भी 200 वर्ष तक राज्य करते रहे। इस प्रकार उत्तराखंड का यह भू-भाग दो राजवंशों के बाद अनिश्चिय का शिकार बना रहा।

कत्यूरी शासकों के मूल पुरुष शालिवाहन थे जो कुमायूं में पहले आए। उन्होंने ही जोशीमठ में राजधानी बनाई। कहा जाता है कि वह अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं में थे। अस्कोट (पिथौरागढ़ जनपद का एक कस्बा) रियासत के रजबार स्वयं को इसी वंश का बताते हैं। हां, यह शालिवाहन इतिहास प्रसिद्ध शालिवाहन सम्राट नहीं थे। ऐसा अवश्य हो सकता है कि अयोध्या का कोई सूर्यवंशी शासक यहां आया हो और जोशीमठ में रहकर अपने प्रभाव से शासन किया हो।

ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि जोशीमठ में राजधानी रखते हुए कत्यूरी राजा शीतकाल में ढिकुली (रामनगर के पास) में अपनी शीतकालीन राजधानी बनाते थे। चीनी यात्री हवेनसांग के वृत्तांतों से मिली जानकारी के अनुसार गोविषाण तथा ब्रह्मपुर (लखनपुर) में बौद्धों की आबादी थी। कहीं-कहीं सनातनी लोग भी रहते थे। इस प्रकार मंदिर व मठ साथ-साथ थे। यह बात 7वीं शताब्दी की है। लेकिन आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य की धार्मिक दिग्विजय से यहां बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया। शंकराचार्य का प्रभाव कत्यूरी राजाओं पर भी पड़े बिना नहीं रहा। कदाचित बौद्धधर्म से विरत होने के कारण उन्होंने जोशीमठ छोड़कर कार्तिकेयपुर में राजधानी बनायी। जोशीमठ में वासुदेव का प्राचीन मंदिर है जिसे कत्यूरी राजा वासुदेव का बनाया कहा जाता है इस मंदिर में 'श्री वासुदेव गिरिराज चक्रचूड़ामणि' खुदा है।

कत्यूरी राजाओं ने गढ़वाल से चलकर बैजनाथ (बागेश्वर के निकट) गोमती नदी के किनारे कार्तिकेयपुर बसाया जो पहले करवीरपुर के नाम जाना जाता था। उन्होंने अपने ईष्टदेव कार्तिकेय का मंदिर भी वहां बनवाया। इस घाटी को कत्यूर नाम दिया। कत्यूरी राजाओं के संबंध काश्मीर से आगे काम्बुल तक थे काश्मीर के तुरुख वंश के एक राजा देवपुत्र वासुदेव के पुत्र कनक देव काबुल में अपने मंत्री के हाथों मारे गये। ऐटकिंसन का तो यहां तक मानना है कि काश्मीर के कठूरी वंश के राजाओं ने ही घाटी का नाम कत्यूर रखा। कई पीढ़ियों तक कत्यूरी वंश के राजाओं का शासन रहा। दूर-दूर के राजाओं के राजदूत कत्यूरी राजाओं के दरबार में आते थे।

कत्यूरी राजा कला-संस्कृति के प्रेमी थे और प्रजा-वत्सल भी। उन्होंने जन-कल्याण के लिए नौले (बाबड़ी), नगर, मंदिर बनाये। जहां वे निर्माण का कोई कार्य करते वहां पत्थर का स्तम्भ अवश्य गाड़ते थे। 'बिरखम्म' के रूप ऐसे स्तंभ आज भी उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों में दबे पाये जाते हैं। कई जगहों पर शिलालेख भी मिलते हैं जो कत्यूरी राजाओं के प्रभुत्व के साक्षी हैं। कुछ कत्यूरी राजाओं के स्थापित शिलालेखों से उनके नामों का पता चलता है, यथा: बसन्तनदेव, खरपरदेव, कल्याणराजदेव, त्रिभुवनराजदेव, निम्बर्तदेव, ईशतारण देव, ललितेश्वरदेव, भूदेवदेव जो गिरिराज चक्रचूड़ामणि या चक्रवर्ती सम्राट कहे जाते थे। कई शिलालेख संस्कृत भाषा में भी उत्कीर्ण हैं।

बंगाल के शिलालेखों और उत्तराखंड के शिलालेखों की इबारत में साम्य यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं दोनों का सम्पर्क था। यह बंगाल के पाल व सेन राजवंशों का उत्तराखंड के कत्यूरी वंश के राजाओं से हो सकता है। यह भी संभव है कि शिलालेखों को लिखने वालों ने एक दूसरे की इबारत की नकल की हो। ऐटकिंसन नकल की संभावना अधिक जताते हैं। हालांकि अपने को कत्यूरी राजाओं का वंशज बताने वाले अस्कोट के रजबार ऐतिहासिक कसौटी पर बंगाल के पालवंशीय राजाओं के निकट नहीं ठहरते तो भी यह सत्य है कि कत्यूरी राजा प्रतापी थे, बलशाली थे और उनके साम्राज्य का विस्‍तार बंगाल तक हो और वे पाल राजाओं को परास्त करने में सफल हुए हों। कत्यूरी शासकों के बाद सन् 700 से 1790 तक चन्द राजवंश का उत्तराखंड में आधिपत्य रहा।

कुमायूं में गोरखों के राज को अंग्रेजों को सौंपने में अपना योगदान देने वाले चर्चित पं हर्षदेव जोशी के बारे में जो दस्तावेज मिलते हैं उनके अनुसार हर्षदेव जोशी ने अंग्रेज फ्रेजर को बताया 'चन्दों के पहले राजा मोहरचन्द थे जो 16-17 की आयु में यहां आये थे। उनके बाद तीन पीढ़ी तक कोई उत्तराधिकारी न होने से मोहरचन्द के चाचा की संतानों में से ज्ञानचन्द को राजा बनाया गया।' इसके अनुसार मोहरचन्द कुमायूं में सन् 1261 में आये और ज्ञानचंद सन् 1374 में गद्दी में बैठे।

ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि राजा मोहरचन्द ने झूंसी से आकर नेपाल के किसी जार (जाट) राजा के यहां नौकरी की किंतु बाद में कुमायूं के कबीरपुर राज्य के राजा को परास्त कर जयदेव तथा अन्य हितैषियों के साथ मिलकर चम्पावती व कूर्मांचल राज्य की स्थापना की। यही भू-भाग बाद में कुमायूं हो गया। काल गणना के अनुसार यह सन् 1438 पड़ता है। इसको हैमिल्टन ने अपने लिखे इतिहास में स्थान दिया और ऐटकिंसन ने उद्धृत किया। ऐसा भी कहा या सुना जाता है कि सोमचन्द एमणटी राजा के भानजे थे और अपने मामा से मिलने आये थे।

ऐसी भी किम्बदन्ती प्रचलित है कि कुमायूं के पुराने वाशिन्दे बोरा या बोहरा जाति के लोगों के अधिकार कत्यूरी राजाओं द्वारा छीन लिए जाने से वे असंतुष्ट थे, इसलिए वे चुपचाप चन्द वंश के राजकुमार सोमचन्द से झूंसी में मिले और विस्तारपूर्वक सभी प्रकार का ऊंच-नीच समझाकर उन्हें कुमायूं लिवा लाए और कत्यूरी राजा के एक अधिकारी गंभीरदेव की कन्या से उसका विवाह करवा दिया। सोमचन्द देखने में रूपवान, बुद्धिमान, वाचाल, शरीर से बलवान व्यवहार में कुशल व चतुर थे। उन्होंने चम्पावतपुरी को शीघ्र ही नया राज्य बनाकर स्वयं राजा बन बैठे। प्राप्त दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि सोमचन्द के गद्दी पर बैठने का समय सन् 700 ठहरता है। यहीं से चन्द वंश का शासन शुरू होता है। कत्यूरी राजवंश के पतन के बाद थोड़े वे इधर-उधर बचे कत्यूरी वंश के छोटे-छोटे राजाओं को परास्त करने में चन्द वंश के उत्तराधिकारियों को कोई कठिनाई नहीं हुई। कत्यूरियों के अलावा खस जाति के लोग भी बिखरे हुए ऊंचे टीलों पर रहते और लूटपाट से अपना जीवन बिता रहे थे। आशय यह कि चन्द वंश ने जब राज्य स्थापित किया तो उस समय अराजकता व्याप्त थीं।
इस समय कन्नौज के राजा को प्रतिष्ठित ही नहीं सार्वभौम माना जाता था। समाज के गुणी जनों की राय से सोमचन्द ने अपनी ओर से एक प्रतिनिधिमंडल कन्नौज भेजा। चम्पावत में सोमचन्द ने एक किला बनवाया और उसे 'राजा बुंगा' नाम दिया। कार्की, बोरा तड़ागी, चौधरी फौजदार या किलेदार थे। राजा सोमचन्द ने उस समय नियमबद्ध राज्य प्रणाली अथवा पंचायती प्रणाली की नींव डाली। कुमायूं के दो जबर्दस्त दलों महर व फर्त्याल को नियंत्रण में रखा। यह राजा सोमचन्द की चतुराई तथा योग्य शासक होने का प्रमाण है। सामान्य मांडलीक राजा से शुरू करके सोमचन्द जब सन् 731 में परलोक सिधारे तो उनके राज्य में कालीकुमाऊं परगना के अलावा ध्यानीरौ, चौभेंसी, सालम व रंगोड़ पट्टियां उनके अधीन थी। वे 21 वर्ष गद्दी में रहे।

राजा सोमचन्द के बाद आत्मचन्द गद्दी पर बैठे। 21 वर्ष राजा रहते हुए उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। कई छोटे-छोटे सरदार उनके दरबार में सलामी बजाने आते थे। धर्म-कर्म में रूचि रखने वाले और प्रजावत्सल थे। सन् 740 में वह स्वर्गवासी हो गये।
आत्मचन्द के बाद पूर्णचन्द राजा हुए। वह शिकार के शौकीन थे। राजकाज में मन कम लगता था। अठारह वर्ष राज्य करने के पश्चात अपने पुत्र इन्द्रचन्द को गद्दी सौंपकर सन् 815 में पूर्णागिरी की सेवा में लग गये और एक वर्ष बाद उनकी मृत्यु भी हो गयी। इन्द्रचन्द ने बीस वर्ष राज्य किया। उनके शासन काल की विशेष घटना रेशम का कारखाना खुलवाने की है। रेशम के कीड़ों के लिए शहतूत (कीमू) के पेड़ लगवाए। बुनकरों (पटुवों) को रोजगार मिला।



       उत्तराखंड संबधी डाक टिकट

 विषय                                                                  वर्ष                    मूल्य                                उद्देश्य
======================================================================
१-पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त                            १९६५                   १५  पैसे                      भारतरत्न अपाधी से विभूषित
२-भारतीय सर्वक्षण विभाग                                १९६७                    १५ पैसे                       २०० वर्ष पूरे कने पर
३-मोनाल पक्षी                                                 १९७५                      २ रुपये                       राज्य पक्षी
४-बुरांस                                                            १९७७                     ५० पैसे                       राज्य वृक्ष
५-भारतीय सैन्य अकदमी                                 १९८२                      ५० पैसे                      स्वर्ण  जयंती  वर्ष
६-आदि शंकराचारी                                           १९८९                       ६० पैसे                     बद्रीनाथ धाम का संस्थापक
७-ब्रह्मकमल                                                  १९८२                    २ रुपये ८० पैसे             राज्य पुष्प
८-श्रीराम आचार्य                                             १९९१                      १ रुपया                      शांतिकुञ्ज हरिद्वार के संशथापक
९-चन्द्र सिंह गढ़वाली                                      १९९४                      १ रुपया                      पेशावर काण्ड के सेनानी
१०-रूडकी विश्वव्ध्यालय                                १९९७                      ८  रुपया                     भारतीय प्राद्योगिकी संस्थान
११-देहरादून में रेल                                          २०००                      १५ रूपये                   १०० वर्ष पूरे करने पर
१२-केदारनाथ धाम                                         २००१                       ४ रूपये                     पांच शैव्तीर्थों  में एक
१३-गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार                          २००२                        ५ रूपये                     १०० वर्ष पूरे करने पर
१४-बद्रीनाथ धाम                                           २००३                       ५ रूपये                      देश के चरों धामों में सर्वश्रेष्ठ धाम
१५-कैम्पटी फाल जलप्रपात                            २००३                       ५ रूपये                     राज्य का प्रमुख पर्यटक स्थल 



M S JAKHI
WWW.MERAPAHAD.COM

7 comments:

  1. ज्ञानवर्धक एवं सहेजने योग्य आलेख. आपका आभार

    ReplyDelete
  2. Bahut moolywaan jaankaaree, shadhuwaad. ise http://www.merapahadforum.com/uttarakhand-history-and-peoples-movement/t1577/ par bhee jod denge to aabhaaree rahunga.

    ReplyDelete
  3. Great blog, nice description and sweet memories

    ReplyDelete