Wednesday 28 July 2010

Sridev Suman Grate Martyr Of Uttarakhand,श्री देव सुमन टिहरी गढ़वाल



यह वीर है उस पुण्य भूमि का, जिसको मानसखंड , केदारखंड, उत्तराखंड कहा जाता है, स्वतंत्रता संग्रामी श्री देब सुमन किसी परिचय के मोहताज़ नही हैं, पर आज की नई पीड़ी को उनके बारे में, उनके अमर बलिदान के बारे में पता होना चाहिए, जिससे उन्हें फक्र हो इस बात पर की हमारी देवभूमि में सुमन सरीखे देशभक्त हुए हैं।

सुमन जी का जनम १५ मई १९१५ या १६ में टिहरी के पट्टी बमुंड, जौल्ली गाँव में हुआ था, जो ऋषिकेश से कुछ दूरी पर स्थित है। पिता का नाम श्री हरी दत्त बडोनी और माँ का नाम श्रीमती तारा देवी था, उनके पिता इलाके के प्रख्यात वैद्य थे। सुमन का असली नाम श्री दत्त बडोनी था।

बाद में सुमन के नाम से विख्यात हुए। पर्ख्यात गाँधी- वादी नेता, हमेशा सत्याग्रह के सिधान्तों पर चले। पूरे भारत एकजुट होकर स्वतंत्रता की लडाई लड़ रहा था, उस लडाई को लोग दो तरह से लड़ रहे थे कुछ लोग क्रांतिकारी थे, तो कुछ अहिंसा के मानकों पर चलकर लडाई में बाद चढ़ कर भाग ले रहे थे, सुमन ने भी गाँधी के सिधान्तों पर आकर लडाई में बद्चाद कर भाग लिया। सुन्दरलाल बहुगुणा उनके साथी रहे हैं जो स्वयं भी गाँधी वादी हैं।


परजातंत्र का जमाना था, लोग बाहरी दुश्मन को भागने के लिए तैयार तो हो गए थे पर भीतरी जुल्मो से लड़ने की उस समय कम ही लोग सोच रहे थे और कुछ लोग थे जो पूरी तरह से आजादी के दीवाने थे, शायद वही थे सुमन जी, जो अंग्रेजों को भागने के लिए लड़ ही रहे थे साथ ही साथ उस भीतरी दुश्मन से भी लड़ रहे थे। भीतरी दुश्मन से मेरा तात्पर्य है उस समय के क्रूर राजा महाराजा। टिहरी भी एक रियासत थी, और बोलंदा बद्री (बोलते हुए बद्री नाथ जी) कहा जाता था राजा को।


श्रीदेव सुमन ने मांगे राजा के सामने रखी, और राजा ने ३० दिसम्बर १९४३ को उन्हें गिरफ्तार कर दिया विद्रोही मान कर, जेल में सुमन को भरी बेडियाँ पहनाई गई, और उन्हें कंकड़ मिली दाल और रेत मिले हुए आते की रोटियां दी गई, सुमन मई १९४४ से आमरण अन्न शन शुरू कर दिया, जेल में उन्हें कई अमानवीय पीडाओं से गुजरना पड़ा, और आखिरकार जेल में २०९ दिनों की कैद में रहते हुए और ८४ दिनों तक अन्न शन पर रहते हुए २५ जुलाई १९४४ को उन्होंने दम तोड़ दिया। उनकी लाश का अन्तिम संस्कार न करके भागीरथी नदी में बहा दिया । मोहन सिंह दरोगा ने उनको कई पीडाएं कष्ट दिए उनकी हड़ताल को ख़त्म करने के लिए कई बार पर्यास किया पर सफल नही हुआ।


कहते हैं समय के आगे किसी की नही चलती वही भी हुआ, सुमन की कुछ मांगे राजा ने नही मानी, सुमन जो जनता के हक के लिए लड़ रहे थे राजा ने ध्यान नही दिया, आज न राजा का महल रहा, न राजा के पास सिंहासन। और वह टिहरी नगरी आज पानी में समां गई है। पर हमेशा याद रहेगा वह बलिदान और हमेशा याद आयेगा क्रूर राजा।

और अब मेरे शोध से लिए गए कुछ तथ्य:-
सुमन को कुछ लोग कहते हैं की उनकी लडाई केवल टिहरी रियासत के लिए थी, पर गवाह है सेंट्रल जेल आगरा से लिखी उनकी कुछ पंक्तियाँ की वह देश की आज़ादी के लिए भी लड़ रहे थे।

"आज जननी उगलती है अगनियुक्त अंगार माँ जी,
आज जननी कर रही है रक्त का श्रृंगार माँ जी।
इधर मेरे मुल्क में स्वधीनता संग्राम माँ जी,
उधर दुनिया में मची है मार काट महान माँ जी। "
उनकी शहादत को एक कवि ने श्रधान्जली दी है-
"हुवा अंत पचीस जुलाई सन चौवालीस में तैसा, निशा निमंत्रण की बेला में महाप्राण का कैसा?
मृत्यु सूचना गुप्त राखी शव कम्बल में लिपटाया, बोरी में रख बाँध उसको कन्धा बोझ बनाया।
घोर निशा में चुपके चुपके दो जन उसे उठाये, भिलंगना में फेंके छाप से छिपते वापस आए।"
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी ने सुमन जी को याद करते हुए लिखा था-
"मै हिमालयन राज्य परिषद् के प्रतिनिधि के रूप में सेवाग्राम में गाँधी जी से १५ मिनट तक बात करते हुए उनसे मिला था, उनकी असामयिक मृत्यु टिहरी के लिए कलंक है। "
और सुंदर लाल बहुगुणा जी ने कहा-
"सुमन मरा नही मारा गया, मेने उसे घुलते-घुलते मरते देखा था। सुमन ने गीता पड़ने को मांगी थी पर नही दी गई, मरने पर सुमन का शव एक डंडे से लटकाया गया, और उसी तरह नदी में विसर्जित कर दिया गया।"
परिपूर्ण नन्द पेन्यूली ने कहा था-
"रजा को मालिक और स्वयं को गुलाम कहना उन्हें अच्छा नही लगा, जबकि राजा और प्रजा में पिता पुत्र का सम्बन्ध होता है।"
अपनी पत्नी विनय लक्ष्मी को उन्होंने कनखल से पत्र लिखा-
" माँ से कहना मुझे उनके लिए छोड़ दें जिनका कोई बेटा नही।"
और साथ में खर्चे की कमी के लिए उन्होंने लिखा-
"राह अब है ख़ुद बनानी, कष्ट, कठिनाइयों में धेर्य ही है बुद्धिमानी"



१९ नवम्बर १०४३ सुमन को आगरा जेल से मुक्त किया गया आगरा जेल से छोटने के पश्चात सुमन ने पुनह टिहरीराज्य में प्रवेश कर जन सेवा करने का निर्णय लिया !तो उनके कुछ शुभचिंतकों ने उन्हें टिहरी राज्य की भीषण स्थिति से अवगत कराया और खा की ऐसी स्थिति में टिहरी राज्य में प्रवेश करना खतरे से खाली नहीं हैं !


इस पर सुमन से उत्तर दिया मेरा कार्य क्षेत्र टिहरी में ही है वहीं कार्य करना व जनता के अधिकारों के लिए सामन्ती शासन के विरुद्ध लड़ना व मरना मेरा पुनीत कर्तब्य है !मैं अपने शरीर के कण-कण को नष्ट हो जाने दूंगा,किन्तु टिहरी राज्य के नागरिक अधिकारों को सामन्ती शासन के पंजे से नहीं कुचलने दूंगा !


१५ दिसम्बर १९४३ को उन्होंने जनरल मिनिस्टर को पत्र लिखा कि मैं शान्ति कि भावना से मिलना चाहता हूँ !१८ दिसम्बर को वो नरेंद्र नगर पहुंचे ,मुख्य पुलिस अधिकारी उन्हें टिहरी जाने कि अनुमति दे दी !


परन्तु थोड़ा आगे बढ़ते ही एक पुलिस अधिकारी ने उनके सिर टोपी उत्तराकर उन्हें बद्धी गालियाँ देते हुए उनकी टोपी को अपने जूते में फंसाकर फाड़ डाला और धमकी दी --घर गए तो घर को उखाड़ दिया जाएगा सुमन शांत रहे और एक सप्ताह घर पर विश्राम किया ,पुलिस बराबर उनके गाँव में उनके किर्या कलापों को देखती रही !


२७ दिसंबर १९४३ को सुमन ने टिहरी राज्य में प्रवेश करने के लिए यात्रा प्रारम्भ कि परन्तु चम्बा में उन्हें आदेश मिला कि आपको तिरही जाना मना है !सुमन वहीं साक पर बैठ गए और जनरल मिनिस्टर और चीफ सेकेटरी को पत्र लिखा कि प्रजामंडल का उदेश्य अकारण संघर्ष करना नहीं है !मुझे पुलिस ने बिना मजिस्टेड की अग्यां के तथा बिना कारण आगे बढ़ने से रोका है उन्होंने पत्र में यह भी लिखा की में आपके पत्र के इन्तजार में यहीं रुका हवा हूँ !

सुमन तीन दिन तक अपने पत्र के उत्तर के इन्तजार में चंबा में ही रुके रहे लेकिन अपने को प्रजा का भाग्या विधाता समझने वाले गर्वीले जनरल मिनिस्टर और चीफ सेकेट्री भला क्या एक नवयुवक समाज सेवी के पत्र का उत्तर क्यों देते !


राज्य के बड़े अधिकारियों को अपने सहानुभूतिपूर्ण लिखे गए पत्र का उत्तर देशभक्त सुमन को गिरफ्तारी के रूप में मिला ३० दिसम्बर १९४३ में सुमन को टिहरी कारागार में बांध कर दिया गया था !कारागार पहुँचते हुए सुमन के वस्त्र छीन लिए गए थे !


उनको नगा करके आठ नंबर वार्ड में बिना किसी विस्तर के अकेले बंद कर दिया गया,उन्हें  डराया-धमकाया तथा माफ़ी मांगने को खा गया परन्तु सुमन ने झुकने से इनकार किया और कहा "तुम मुझे तोड़ सकते हो लेकिन मोड़ नहीं सकते "इस पर उन पर बैत बरसाए गए और पैंतीस सेर की बेड़ियाँ उनके पैरों में डाल दी गयी
!

सुमन को भूसे और रेत से बनी हुयी रोटियाँ खाने को दी गयी जब सुमन ने उनको खाने से इनकार कसर दिया तो उस शीत ऋतू में उन बाल्टियों और पिचकारियों से ठंडा पानी फेंका गया !सुमन सात दिन तक बिना खाए पिए और बिना विस्तर शीले फर्स उन पर भारी बेड़ियों से जकड़े पड़े रहे !

सुमन को दिर्ड भावना को देखते हुए सातवें दिन जेल ले कर्मचारियों को कुछ झुकना पड़ा,सुमन के बिस्तर कपडे तथा हजामत का सामान उन्हें लोटा दिया गया,बेड़ियाँ खोल दी गयीं !और आश्वासन दिया गया कि उन्हें पत्र ब्यवहार करने कि सुविधा दी जाएगी !


२१ जनवरी १९४४ से सुमन पर राजद्रोह के केस चलाया गया देहरादून के खुर्सिद्याल वकील को सुमन कि पैरवी करने के लिए स्विकिरती नहीं दी गयी !अथ सुमन ने स्वयं पेरवी कि और ब्यान में कहा ----में इस अभियोग को सर्वथा  झूठा,बनावटी और बदले कि भावना से चलाया गया मानता हूँ !


मेरे विरुद्ध लाये गये साक्षी सर्वथा बनावटी हैं,वे या तो सरकारी कर्मचारी हैं,या तो पुलिस के आदमी हैं,में जहां अपने भारत देश के लिए पूर्ण स्वाधीनता के धेय में विश्वास करता हूँ!वहां टिहरी राज्य में मेरा और प्रजामंडल का उदेश्य वैध व शांतिपूर्ण उपायों से श्री महाराज कि छत्रछाया में उत्तरदायी शान प्राप्त करना और सेवा के साधने द्वारा राज्य के सामाजिक आर्थिक और सब प्रकार कि उन्नति करना है !


टिहरी महराज और उनके साशन के विरुद्ध किसी प्रकार का विद्रोह,द्वेस और घिर्णा का प्रचार मेरे सिद्धांत के बिलकुल विरुद्ध है!मैंने प्रजा कि भावना के विरुद्ध बने हुए काले कानूनों और कार्यों कि अवस्य आलोचना कि है!इसे मैं प्रजा का जन्म सिद्ध अधिकार समझता हूँ!

सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर विश्वास करने वाला होने के कारण मैं किसी के प्रति घिर्णा और द्वेष का भाव नहीं रख सकता !

श्रीदेव सुमन ने संघर्ष से बचने के लिए प्रजामंडल को पंजिकिर्त करने कि बात चलाई थी,किन्तु झूठा आरोप लगाकर में बंद कर दिया गया है ! तथा मुझे सब प्रकार कि बैध व कानूनी सुविधाएँ से पूर्णत वंचित कर दिया गया !यह मेरे प्रति अन्याय था!
सुमन के ब्यान का राज्यकर्मचारियों पर कोई प्रभाव न पड़ा और उन्हें दो साल कि सजा और दो सो रूपये का आर्थिक दंड दिया गया था! २९ फरवरी ४४ से जेल कर्मचारियों के दुर्ब्योहार के विरोध में सुमन ने अनसन प्रारम्भ कर दिया! 

 
इसकी सूचना राज्य के बाहर न देने के लिए टिहरी रियासत की ओर से पूरे प्रबंध किये गए,परन्तु स्वत्न्र्ता सेनानी सुन्दर लाल बहुगुणा सुमन के अनसन के समाचार, समाचार पत्रों में छाप दिए !तत्कालीन केन्द्रीय असेम्बली के सदस्य बद्रीदत पाण्डेय ने पूछताछ की !

 
इस पर जेल में सुमन के साथ कुछ नर्म ब्यवहार किया गया,फलस्वरूप उन्होंने अपना अनसन समाप्त कर दिया सुमन से अपना अनसन उन्हें राज्य की ओर से दिए गए अस्वासनों पर ही तोडा था !
अथ वे एक माह तक उन्हें दिए गए आश्वासनों की पूर्ती की प्रतीक्षा करते रहे !

 
किन्तु राज्य की ओर से कोई आदेश नहीं मिला,जेल के कर्मचारियों फिर कठोर नीति अपनाई ओर सुमन को बेतों की सजा मिलने लगी,परशान होकर सुमन ने तीन मांगे राजा के पास भेजी थी!
 जो इस प्रकार थीं !


१-प्रजामंडल को बैध करार करें !

२-मुझे पत्र ब्यवहार की स्वतंत्रता दी जाय !

३-मेरे झूठे मुकदमे की अपील राजा स्वयं सुने !


सुमन ने ये भी कहा कियदि पन्द्रह दिन तक मुझे इन मांगों का उत्तर न मिला तो मैं आमरण अनसन प्रारम्भ कर दूंगा,१५ दिनों तक उत्तर न मिलने पर सुमन ने अपने कथनुसार ३ मई १९४४ से अपना एतिहासिक आमरण अनसन प्रारम्भ कर दिया था !

 
अनसन प्रारम्भ करते ही सुमन जी पर अमानवीय अत्याचार किये जाने लगे,उनके पैरों  में और  भरी बेड़ियाँ डाल दी गयी,डंडो से प्रहार किया जाने लगा कई दिनों तक भोजन कराने का असफल प्रयास भी किया गया एक दिन जब उनको बल पूर्वक दूध पिलाने के प्रयास किया गया तो उनके मुहं से रुधिर कि धारा प्रभावित होने लगी थीं !
 
लेकिन भारतमाता के इस सचे स्प्पोत ने अपना मुहं नहीं खोला,निरंतर अपनी लोहदंड नीति कि असफलता को देखते हुए रियासती कर्मचारियों ने अनसन के १५ वें दिन से उन पर अत्याचार करना बंद कर दिए!
२८ वें दिन डाक्टर और मजिस्टेड ने दूध पिलाने के असफल प्रयास किये !

 
४८ वें दिन स्वास्थ्य एवेम कारागार मंत्री डाक्टर बेलिराम ने भी सुमन को दूध पिलाने के असफल प्रयत्न किये,डाक्टर बेलिराम ने प्रतापनगर राजा से सुमन को मुक्त कर देने को कहा किन्तु राजा ने कोई उत्तर नहीं दिया!

 
जब सुमन के आमरण अनसन कि खबर पूरे देश में फेलने लगी  तो बद्रीदत पाण्डेय,यम यल  ऐ,लोक परिषद् के मंत्री जय नारायण ब्यास और प्रजामंडल के भूतपूर्व अध्यक्ष गोविन्दराम भट्ट ने सुमन के सम्बन्ध में पूछताछ की !

 
इस पर टिहरी रियासत की ओर से असत्य प्रचार किया गया किवे राजनैतिक बंदी नहीं है और जयनारायण ब्यास को सूचना दी गयी कि उनका स्वास्थ्य असंतोषजनक है और उन्होंने ११ जुलाई को अनसन तोड़ दिया है !


११ जुलाई सुमन का स्वास्थ्य चिंताजनक हो गया डाक्टर बेलिराम ने उन्हें ४ अगस्त १९४४   को महाराजा के जन्म दिवस पर मुक्त करने का आश्वासन दिया,और कहा कि भूखहड़ताल छोड़ दें!राजा अपने जन्म दिवस पर सुमन को मुक्त करने का आदेश युवराज को देकर स्वयम मुंबई चले गये !

राजा का कथन जब भी सुमन को सुनाया गया तो सुमन ने कहा----------क्या मैं छूटने के लिए अनसन कर रहा हूँ ? मुझे छोड़ा गया तो मैं अपने उदेश्यों के लिए बाहर भी अनसन जारी रखूंगा!सुमन के बिगड़े हुए स्वास्थ्य को देखते हुए कुछ रियासती कर्मचारी उन्हें छोड़ने अर्थात जेल से मुक्त करने के पक्ष में थे!


लेकिन कुछ एनी कर्मचारी राजा के आदेश कि आड़ में सुमन को ४ अगस्त तक जेल में रखने के लए कटिबद्ध थे,अपनी योजना को कार्यन्वित करने के लिए उन्होंने प्रचार किया कि सुमन निमोनियां से पीड़ित है!सुमन कि चिकित्सा डाक्टर नौटियाल कर रहा था !
 

डाक्टर नौटियाल पर सुमन के प्रति सहानुभूति रखने का संदेह होने के कारण ताकतर बलवंत सिंह को सुमन कि चिकित्सा का कार्यभार सोंपा गया निमोनियां कि कथित बिमारी में डाक्टर बलवंत ने सुमन  को
कुनैन के नासंत्र्गत( इंट्रावीनस) इंजेक्सन लगा दिए !


कुनैन कि गर्मी ने सुमन के शरीर को सुखा दिया वे पानी, पानी चिलाने लगे !२० जुलाई से ही उन्हें बेहोसी आने लगी २५ जुलाई १९४४ को सुमन चौरासी,८४ दिनों कि भूख हड़ताल के बाद प्रात चार बजे टेरेस मेक्विन और यतीन्द्रनाथ दास की तरह शहीद हो गए !


रात्री को अँधेरे में सुमन का शव एक बोरी में सीकर पास ही बहती भिलंगना नदी में फेंक दिया गया !सुमन की मिर्त्यु के पश्चात तिहरी राज्य की ओर से सुरेन्द्रदत्त नौटियाल को स्पेसियल मजिस्टेड बनाकर सुमन काण्ड की जांच करवाई गयी मजिस्टेड ने पब्लिसिटी अफसर २६ जुलाई वाली प्रेस विज्ञप्ति की पुष्टि की जसमें कहा गया कि निमोनियां के कारण सुमन कि मिर्त्यु हुई टिहरी राज्य कि ओर से एक ओर सुमन कांड कि जांच का नाटक रचा जा रहा था !


तो दूसरी ओर दो हजार रूपये के दंड कि वसूली के लिए उनकी भूसम्पति की कुर्की का आयोजन किया जा रहा था लोक पार्षद की ओर से बद्रीदत पाण्डेय की अध्यक्षता में सुमन जांच कमिटी नियुक्त की गयी सुमन जाँच कमिटी की रिपोर्ट पर लोक परिषद् की स्थाई समिति ने  अपना निष्कर्ष दिया कि सुमन कि गिरफ्तारी अकारण हुई है ओर उनके साथ कारागार में अमानुषिक अत्याचार हुए !


महाराजा के प्रति सुमन कि श्रधा भक्ति निसंदेह से सर्वथा रहित और स्फटिकमणि  की भाँती निष्कलं थी !

सुमन के मामले में हस्तक्षेप न करके महाराजा नरेंद्रशाह ने अपने कर्तब्य की नितांत अवहेलना की उन्होंने दोषी कमचारियों को कोई दंड नहीं दिया इससे राजा और प्रजा के मध्य स्थित खाई और भी चौड़ी हो गयी सुमन जांच समिति के अध्यक्ष बद्रीदत्त पाण्डेय अनुसार जिस प्रकार महभारत के आठ महारथी मिलकर अभिमन्यु को मारा था


उसी प्रकार टिहरी राज्य के अत्यचारी कमचारियो और कुकर्मी राजा नरेन्द्रशाह ने उस अहिंसात्मक आधुनिक अभिमन्यु (श्रीदेव सुमन )को कारागार में ऐसी यातनाएं दी जिससे सुमन को नारकीय जेल में जीवन को बिताने के बदले प्राण देने पर उतारू होना पड़ा !





कहा जाता है की सुमन के बलिदान प्रभावित होकर ही जनरल मिनिस्टर मोलीचन्द्र शर्मा ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया और कहा ----------द्रोपदी के आंसुओं ने अत्याचारी कोंरवों के अत्यचार का अंत किया था !उन्नीस वर्षीय विधवा विनयलक्ष्मी के आंसू टिहरी राज्य के अत्यचारों का अवस्य अंत करेंगे 



 प्रथम अगस्त १९४९ में जब टिहरी राज्य का विलीनीकरण हुवा, तो टिहरी राज्य विलय महोत्सव पर राष्ट्र का तिरंगा झंडा हाथ में लिए शहीद श्रीदेव सुमन की तपसी अर्धांगिनी विनयलक्ष्मी  सुमन ही सबसे आगे थी !

भारत की स्वतंत्रता के बाद श्रीमती विनयलक्ष्मी सुमन कई वर्ष उत्तर प्रदेश विधान सभा की सदस्य रहीं उन्होंने अपने पद पर रह कर योगितापूर्वाक कार्य किया और उत्तराखंड के विकास का मार्ग प्रशस्त किया है !

Monday 12 July 2010

इतिहास के पन्नों में उत्तराखंड की तस्वीर

उत्तराखंड में राजवंशों की शासन श्रृंखला के बारे में अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर जो लिखा जाता रहा है एवं उसकी पांडुलीपियों और शिलालेखों से यहां के बारे में जो जानकारियां मिलती हैं वह उत्तराखंड के प्राचीन इतिहास और सभ्यता को समृद्धशाली बनाती हैं। उत्तराखंड की नई पीढ़ी इस समय अपने उच्चतम विकास की प्रत्याशा में यहां से पलायन कर रही है या फिर उसमें अपने पूर्वजों को पढ़ने और समझने में कम ही दिलचस्पी है। इतिहास वेत्ताओं का कहना है कि उत्तराखंड का इतिहास राजवंशो से इतना समृद्धिशाली है कि उनकी पृष्ठभूमि इस तथ्य की पुष्टि करती है कि उत्तराखंड राज्य की आवश्यकता तो आज़ादी के समय से ही थी यदि इस पर दूरगामी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से कार्य किया जाता तो देश का यह महत्वपूर्ण हिम क्षेत्र अब तक पर्यटन उद्योग का एक प्रमुख मॉडल और प्रत्येक दृष्टि से बहुत समृद्धशाली हो गया होता।

ईसा से 2500 वर्ष पहले पश्चिमोत्तर भू-भाग में कत्यूरी वंश के शासकों का आधिपत्य था। प्रारंभ में इनकी राजधानी जोशीमठ थी जो कि आज चमोली जनपद में है, बाद में कार्तिकेयपुर हो गई। कत्यूरी राजाओं का राज्य सिक्किम से लेकर काबुल तक था। उनके राज्य में दिल्ली व रोहेलखंड भी थे। पुरातत्ववेत्ता कनिंघम ने भी अपनी किताब में इस तथ्य का उल्लेख किया है। ताम्रपत्रों और शिलालेखों के अध्ययन से कत्यूरी राजा सूर्यवंशी ठहरते हैं इसीलिए कुछ शोधकर्त्ताओं के विचार से अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं का विस्तार कदाचित यहां तक हो। यह निर्विवाद है कि कत्यूरी शासक प्रभावशाली थे। उन्होंने खस राजाओं पर विजय पाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
आज दो राजस्व मण्डलों (कुमायूं, गढ़वाल) के 13 जिलों सिमट कर रह गया है किंतु यह कत्यूरी तथा चन्द राजवंशों, गोरखाराज और अंग्रेजों के शासनाधीन रहा। ईपू 2500 वर्ष से 770 तक कत्यूरी वंश, सन् 770-1790 तक चन्द वंश, सन् 1790 से 1815 तक गोरखा शासकों और सन् 1815 से भारत को आजादी मिलने तक अंग्रेज शासकों के अधीन रहा। कुमायूं और गढ़वाल मण्डल, शासन-प्रशासन, राजस्व वसूलने की सुविधा की दृष्टि से अंग्रेज शासकों ने बनाये थे।

कत्यूरी शासकों की अवनति का कारण शक व हूण थे। वे यहां के शासक तो रहे लेकिन अधिक समय नहीं। कत्यूरी राजवंश के छिन्न-भिन्न भू-भाग को समेट कर बाद में चन्द्रवंश के चंदेले राजपूत लगभग 1000 वर्ष यहां के शासक रहे। बीच में खस राजा भी 200 वर्ष तक राज्य करते रहे। इस प्रकार उत्तराखंड का यह भू-भाग दो राजवंशों के बाद अनिश्चिय का शिकार बना रहा।

कत्यूरी शासकों के मूल पुरुष शालिवाहन थे जो कुमायूं में पहले आए। उन्होंने ही जोशीमठ में राजधानी बनाई। कहा जाता है कि वह अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं में थे। अस्कोट (पिथौरागढ़ जनपद का एक कस्बा) रियासत के रजबार स्वयं को इसी वंश का बताते हैं। हां, यह शालिवाहन इतिहास प्रसिद्ध शालिवाहन सम्राट नहीं थे। ऐसा अवश्य हो सकता है कि अयोध्या का कोई सूर्यवंशी शासक यहां आया हो और जोशीमठ में रहकर अपने प्रभाव से शासन किया हो।

ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि जोशीमठ में राजधानी रखते हुए कत्यूरी राजा शीतकाल में ढिकुली (रामनगर के पास) में अपनी शीतकालीन राजधानी बनाते थे। चीनी यात्री हवेनसांग के वृत्तांतों से मिली जानकारी के अनुसार गोविषाण तथा ब्रह्मपुर (लखनपुर) में बौद्धों की आबादी थी। कहीं-कहीं सनातनी लोग भी रहते थे। इस प्रकार मंदिर व मठ साथ-साथ थे। यह बात 7वीं शताब्दी की है। लेकिन आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य की धार्मिक दिग्विजय से यहां बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया। शंकराचार्य का प्रभाव कत्यूरी राजाओं पर भी पड़े बिना नहीं रहा। कदाचित बौद्धधर्म से विरत होने के कारण उन्होंने जोशीमठ छोड़कर कार्तिकेयपुर में राजधानी बनायी। जोशीमठ में वासुदेव का प्राचीन मंदिर है जिसे कत्यूरी राजा वासुदेव का बनाया कहा जाता है इस मंदिर में 'श्री वासुदेव गिरिराज चक्रचूड़ामणि' खुदा है।

कत्यूरी राजाओं ने गढ़वाल से चलकर बैजनाथ (बागेश्वर के निकट) गोमती नदी के किनारे कार्तिकेयपुर बसाया जो पहले करवीरपुर के नाम जाना जाता था। उन्होंने अपने ईष्टदेव कार्तिकेय का मंदिर भी वहां बनवाया। इस घाटी को कत्यूर नाम दिया। कत्यूरी राजाओं के संबंध काश्मीर से आगे काम्बुल तक थे काश्मीर के तुरुख वंश के एक राजा देवपुत्र वासुदेव के पुत्र कनक देव काबुल में अपने मंत्री के हाथों मारे गये। ऐटकिंसन का तो यहां तक मानना है कि काश्मीर के कठूरी वंश के राजाओं ने ही घाटी का नाम कत्यूर रखा। कई पीढ़ियों तक कत्यूरी वंश के राजाओं का शासन रहा। दूर-दूर के राजाओं के राजदूत कत्यूरी राजाओं के दरबार में आते थे।

कत्यूरी राजा कला-संस्कृति के प्रेमी थे और प्रजा-वत्सल भी। उन्होंने जन-कल्याण के लिए नौले (बाबड़ी), नगर, मंदिर बनाये। जहां वे निर्माण का कोई कार्य करते वहां पत्थर का स्तम्भ अवश्य गाड़ते थे। 'बिरखम्म' के रूप ऐसे स्तंभ आज भी उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों में दबे पाये जाते हैं। कई जगहों पर शिलालेख भी मिलते हैं जो कत्यूरी राजाओं के प्रभुत्व के साक्षी हैं। कुछ कत्यूरी राजाओं के स्थापित शिलालेखों से उनके नामों का पता चलता है, यथा: बसन्तनदेव, खरपरदेव, कल्याणराजदेव, त्रिभुवनराजदेव, निम्बर्तदेव, ईशतारण देव, ललितेश्वरदेव, भूदेवदेव जो गिरिराज चक्रचूड़ामणि या चक्रवर्ती सम्राट कहे जाते थे। कई शिलालेख संस्कृत भाषा में भी उत्कीर्ण हैं।

बंगाल के शिलालेखों और उत्तराखंड के शिलालेखों की इबारत में साम्य यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं दोनों का सम्पर्क था। यह बंगाल के पाल व सेन राजवंशों का उत्तराखंड के कत्यूरी वंश के राजाओं से हो सकता है। यह भी संभव है कि शिलालेखों को लिखने वालों ने एक दूसरे की इबारत की नकल की हो। ऐटकिंसन नकल की संभावना अधिक जताते हैं। हालांकि अपने को कत्यूरी राजाओं का वंशज बताने वाले अस्कोट के रजबार ऐतिहासिक कसौटी पर बंगाल के पालवंशीय राजाओं के निकट नहीं ठहरते तो भी यह सत्य है कि कत्यूरी राजा प्रतापी थे, बलशाली थे और उनके साम्राज्य का विस्‍तार बंगाल तक हो और वे पाल राजाओं को परास्त करने में सफल हुए हों। कत्यूरी शासकों के बाद सन् 700 से 1790 तक चन्द राजवंश का उत्तराखंड में आधिपत्य रहा।

कुमायूं में गोरखों के राज को अंग्रेजों को सौंपने में अपना योगदान देने वाले चर्चित पं हर्षदेव जोशी के बारे में जो दस्तावेज मिलते हैं उनके अनुसार हर्षदेव जोशी ने अंग्रेज फ्रेजर को बताया 'चन्दों के पहले राजा मोहरचन्द थे जो 16-17 की आयु में यहां आये थे। उनके बाद तीन पीढ़ी तक कोई उत्तराधिकारी न होने से मोहरचन्द के चाचा की संतानों में से ज्ञानचन्द को राजा बनाया गया।' इसके अनुसार मोहरचन्द कुमायूं में सन् 1261 में आये और ज्ञानचंद सन् 1374 में गद्दी में बैठे।

ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि राजा मोहरचन्द ने झूंसी से आकर नेपाल के किसी जार (जाट) राजा के यहां नौकरी की किंतु बाद में कुमायूं के कबीरपुर राज्य के राजा को परास्त कर जयदेव तथा अन्य हितैषियों के साथ मिलकर चम्पावती व कूर्मांचल राज्य की स्थापना की। यही भू-भाग बाद में कुमायूं हो गया। काल गणना के अनुसार यह सन् 1438 पड़ता है। इसको हैमिल्टन ने अपने लिखे इतिहास में स्थान दिया और ऐटकिंसन ने उद्धृत किया। ऐसा भी कहा या सुना जाता है कि सोमचन्द एमणटी राजा के भानजे थे और अपने मामा से मिलने आये थे।

ऐसी भी किम्बदन्ती प्रचलित है कि कुमायूं के पुराने वाशिन्दे बोरा या बोहरा जाति के लोगों के अधिकार कत्यूरी राजाओं द्वारा छीन लिए जाने से वे असंतुष्ट थे, इसलिए वे चुपचाप चन्द वंश के राजकुमार सोमचन्द से झूंसी में मिले और विस्तारपूर्वक सभी प्रकार का ऊंच-नीच समझाकर उन्हें कुमायूं लिवा लाए और कत्यूरी राजा के एक अधिकारी गंभीरदेव की कन्या से उसका विवाह करवा दिया। सोमचन्द देखने में रूपवान, बुद्धिमान, वाचाल, शरीर से बलवान व्यवहार में कुशल व चतुर थे। उन्होंने चम्पावतपुरी को शीघ्र ही नया राज्य बनाकर स्वयं राजा बन बैठे। प्राप्त दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि सोमचन्द के गद्दी पर बैठने का समय सन् 700 ठहरता है। यहीं से चन्द वंश का शासन शुरू होता है। कत्यूरी राजवंश के पतन के बाद थोड़े वे इधर-उधर बचे कत्यूरी वंश के छोटे-छोटे राजाओं को परास्त करने में चन्द वंश के उत्तराधिकारियों को कोई कठिनाई नहीं हुई। कत्यूरियों के अलावा खस जाति के लोग भी बिखरे हुए ऊंचे टीलों पर रहते और लूटपाट से अपना जीवन बिता रहे थे। आशय यह कि चन्द वंश ने जब राज्य स्थापित किया तो उस समय अराजकता व्याप्त थीं।
इस समय कन्नौज के राजा को प्रतिष्ठित ही नहीं सार्वभौम माना जाता था। समाज के गुणी जनों की राय से सोमचन्द ने अपनी ओर से एक प्रतिनिधिमंडल कन्नौज भेजा। चम्पावत में सोमचन्द ने एक किला बनवाया और उसे 'राजा बुंगा' नाम दिया। कार्की, बोरा तड़ागी, चौधरी फौजदार या किलेदार थे। राजा सोमचन्द ने उस समय नियमबद्ध राज्य प्रणाली अथवा पंचायती प्रणाली की नींव डाली। कुमायूं के दो जबर्दस्त दलों महर व फर्त्याल को नियंत्रण में रखा। यह राजा सोमचन्द की चतुराई तथा योग्य शासक होने का प्रमाण है। सामान्य मांडलीक राजा से शुरू करके सोमचन्द जब सन् 731 में परलोक सिधारे तो उनके राज्य में कालीकुमाऊं परगना के अलावा ध्यानीरौ, चौभेंसी, सालम व रंगोड़ पट्टियां उनके अधीन थी। वे 21 वर्ष गद्दी में रहे।

राजा सोमचन्द के बाद आत्मचन्द गद्दी पर बैठे। 21 वर्ष राजा रहते हुए उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। कई छोटे-छोटे सरदार उनके दरबार में सलामी बजाने आते थे। धर्म-कर्म में रूचि रखने वाले और प्रजावत्सल थे। सन् 740 में वह स्वर्गवासी हो गये।
आत्मचन्द के बाद पूर्णचन्द राजा हुए। वह शिकार के शौकीन थे। राजकाज में मन कम लगता था। अठारह वर्ष राज्य करने के पश्चात अपने पुत्र इन्द्रचन्द को गद्दी सौंपकर सन् 815 में पूर्णागिरी की सेवा में लग गये और एक वर्ष बाद उनकी मृत्यु भी हो गयी। इन्द्रचन्द ने बीस वर्ष राज्य किया। उनके शासन काल की विशेष घटना रेशम का कारखाना खुलवाने की है। रेशम के कीड़ों के लिए शहतूत (कीमू) के पेड़ लगवाए। बुनकरों (पटुवों) को रोजगार मिला।



       उत्तराखंड संबधी डाक टिकट

 विषय                                                                  वर्ष                    मूल्य                                उद्देश्य
======================================================================
१-पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त                            १९६५                   १५  पैसे                      भारतरत्न अपाधी से विभूषित
२-भारतीय सर्वक्षण विभाग                                १९६७                    १५ पैसे                       २०० वर्ष पूरे कने पर
३-मोनाल पक्षी                                                 १९७५                      २ रुपये                       राज्य पक्षी
४-बुरांस                                                            १९७७                     ५० पैसे                       राज्य वृक्ष
५-भारतीय सैन्य अकदमी                                 १९८२                      ५० पैसे                      स्वर्ण  जयंती  वर्ष
६-आदि शंकराचारी                                           १९८९                       ६० पैसे                     बद्रीनाथ धाम का संस्थापक
७-ब्रह्मकमल                                                  १९८२                    २ रुपये ८० पैसे             राज्य पुष्प
८-श्रीराम आचार्य                                             १९९१                      १ रुपया                      शांतिकुञ्ज हरिद्वार के संशथापक
९-चन्द्र सिंह गढ़वाली                                      १९९४                      १ रुपया                      पेशावर काण्ड के सेनानी
१०-रूडकी विश्वव्ध्यालय                                १९९७                      ८  रुपया                     भारतीय प्राद्योगिकी संस्थान
११-देहरादून में रेल                                          २०००                      १५ रूपये                   १०० वर्ष पूरे करने पर
१२-केदारनाथ धाम                                         २००१                       ४ रूपये                     पांच शैव्तीर्थों  में एक
१३-गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार                          २००२                        ५ रूपये                     १०० वर्ष पूरे करने पर
१४-बद्रीनाथ धाम                                           २००३                       ५ रूपये                      देश के चरों धामों में सर्वश्रेष्ठ धाम
१५-कैम्पटी फाल जलप्रपात                            २००३                       ५ रूपये                     राज्य का प्रमुख पर्यटक स्थल 



M S JAKHI
WWW.MERAPAHAD.COM

Wednesday 7 July 2010

उत्तराखंड में बसा है 'मिनी जापान'


टिहरी जिले के घनसाली ब्लाक में कई गांवों के लोग हैं जापान में -इन गांवों के प्रत्येक घर से एक सदस्य कर रहा जापान में नौकरी -जापानी मुद्रा 'येन' की बदौलत इलाके में सबसे समृद्ध हैं ये गांव घनसाली (टिहरी): शीर्षक पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि आखिर भारत के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के सुदूरवर्ती अंचलों में मिनी जापान कैसे बस सकता है।

यह सोचना बिलकुल सही है, लेकिन यह बात भी सच है कि इन गांवों में एक भी जापानी नहीं रहता है। इसके बावजूद इलाके में ये गांव 'मिनी जापान' के नाम से ही जाने जाते है। अब आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्यों, चलिए हम ही बता देते हैं।

बात दरअसल यह है कि इन गांवों के कमोवेश हर घर से कम से कम एक सदस्य जापान में नौकरी कर रहा है। ऐसे में जापानी मुद्रा 'येन' की बदौलत दूरस्थ होने के बावजूद आज इस गांव में कई आलीशान दोमंजिला पक्के मकान हैं। गांव में बिजली नहीं है, लेकिन हर घर में सौर ऊर्जा उपकरण लगे हैं। इससे ग्रामीणों की रातें रोशन होती हैं।



खास बात यह है कि इस गांव के अधिकांश युवाओं का सपना भी पढ़-लिखकर जापान जाने का ही रहता है। टिहरी जनपद के भिलंगना विकासखंड का हिंदाव क्षेत्र शिक्षा, बिजली और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से पूरी तरह वंचित है। इसके बावजूद यहां के गांवों में मौजूद सुख-सुविधाएं ऐसी हैं कि बड़े-बड़े शहरों को भी मात दे दें। सड़क मार्गों से काफी दूर खड़ी चढ़ाई पार करने के बाद इन गांवों को देखकर यकीन ही नहीं होता कि ये दूरस्थ क्षेत्रों के गांव हैं। यह गांव इतने समृद्ध कैसे हुए।

इसकी कहानी शुरू हुई करीब दो दशक पूर्व जब रोजगार की तलाश में यहां के कुछ युवा शहरों की ओर गए। खास बात यह रही कि उन्होंने नौकरी के लिए सीधा जापान का रुख किया और बस गांव की तस्वीर बदलनी शुरू हो गई। आज पट्टी हिंदाव क्षेत्र के ग्राम सरपोली, पंगरियाणा, भौंणा, लैणी, अंथवालगांव आदि गांवों में लगभग हर घर से कम से कम एक सदस्य जापान में है।

इनमें से अधिकांश वहां होटल व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। गांव के अधिकतर लोगों का जापान में होने का असर यहां की आर्थिकी पर भी पड़ा। आज पट्टी के सभी गांवों में सीमेंट के पक्के आलीशान भवन बने हुए हैं। इनमें न केवल आधुनिक सुख-सुविधाएं हैं, बल्कि मनोरंजन के सारे साधन मौजूद हैं। खास बात यह है कि जब क्षेत्र के अधिकांश गांवों में बिजली पहुंची ही नहीं थी, तब इन गांवों के लोगों ने अपने खर्चे पर सौर ऊर्जा उपकरण लगवा लिए थे। जापानी मुद्रा यानि येन की बदौलत यह गांव अन्य गांवों के मुकाबले सुविधा संपन्न हो गए।



सरपोली के ग्राम प्रधान कुंदन सिंह कैंतुरा कहते हैं कि विदेश में बसे लोगों ने गांवों की तस्वीर बदल दी, लेकिन सड़क व शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं जुटाने को प्रयास किए जाने की जरूरत है। 500 विदेशी खाते हैं घनसाली बैंक में घनसाली: जनपद टिहरी की भारतीय स्टेट बैंक की घनसाली शाखा में 500 बैंक खाते ऐसे हैं, जो विदेश से संचालित होते हैं। 


http://www.merapahadforum.com/tourism-places-of-uttarakhand/ghansali-mini-japan-of-uttarakhand/

Thursday 1 July 2010

उत्तराखंड के पहाड़ों में पाए जाने वाला कांटेदार टिमरू है रामबाण

पहाड़ में अधिकांश स्थानों पर पाया जाने वाला टिमरू एक कांटेदार पेड़ है। यह सिर्फ कांटेदार नहीं कई दवाईयों और टोटकों के साथ कई अन्य मामलों में भी इसका प्रयोग होता है। बदरीनाथ और केदारनाथ में इसकी टहनी को प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है।
पहाड़ के सभी जिलों में टिमरू बहुतायत मात्रा में पाया जाता है। गढ़वाल में इसकी प्रमुख रूप से पांच प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें एलेटम आरमैटम प्रमुख हैं। इसका वानस्पतिक नाम जैन्थोजायलम एलेटम है। दांतों के लिए विशेषकर दंत मंजन, दंत लोशन व बुखार में यह काम आता है। इसके फल को भी कई उपयोगों में लाया जाता है। इसका फल पेट के कीड़े मारने व हेयर लोशन के काम में भी आता है। कई दवाइयों में इसके पेड़ का प्रयोग किया जाता है। टिमरू के मुलायम टहनियों को दांत में रगड़ने से जो चमक आती है वह बाजार के किसी भी टूथपेस्ट या मंजन से नहीं आ सकती है। यह आपके दांतों को मजबूत रखने के साथ ही दातों में कीड़ा नहीं लगने देता। यह मसूड़ों की बीमारी के लिए भी रामबाण का काम करता है। गांव में आज भी कई बुर्जुग लोग इसकी टहनियों से ही दंतमंजन करते आ रहे हैं। टिमरू औषधीय गुणों से युक्त तो है ही, साथ ही इसका धार्मिक व घरेलू महत्व भी है। टिमरू का छोटा तना प्रसाद के रूप में हिन्दुओं प्रसिद्ध धाम बदरीनाथ व केदारनाथ में प्रसाद के तौर पर चढ़ाया जाता है। यही नहीं गांव में लोग किसी बुरी नजर से बचने के लिए इसके तने को काटकर अपने घरों में भी रखते हैं। गांव में लोग इसके पत्ते को गेहूं के बर्तन में डालते हैं, क्योंकि इससे गेहूं में कीट नहीं लगते।